Thursday, March 28, 2024
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तथागत सम्यक सम्बुद्ध

तथागत सम्यक सम्बुद्ध

सिद्धार्थ गौतम का जन्म ईसापूर्व 563 में वैसाख पूर्णिमा के दिन लुम्बिनी वन में हुआ था। उनकी माता का नाम महामाया तथा पिता का नाम शुद्धोधन था जो कि शाक्य कुल के क्षत्रिय थे और कपिलवस्तु के राजा थे। कपिलवस्तु में प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास के अन्तिम सप्ताह में एक उत्सव मनाया जाता था, जिसमें राज परिवार भी हिस्सा लेता था। उत्सव के अन्तिम दिन पूर्णिमा थी। रानी महामाया शाम को स्नान करके अपने शयनकक्ष में सोने चली गई, शुद्धोधन के साथ उन्होंने संसर्ग किया और फिर सो गई।
महामाया ने एक स्वप्न देखा कि देवी अप्सराएं उनके पलंग को उठाकर हिमालय पर ले गईं और एक पेड़ के नीचे रख दिया, तभी बोधिसत्व सुमेध उनके सामने आकर खड़े हो गए और बोले कि मैं अपना अन्तिम जन्म पृथ्वी पर लेने वाला हूँ क्या आप मेरी माता बनना स्वीकार करेंगी, महामाया ने कहा हाँ मैं तुम्हारी माता बनने के लिए तैयार हूँ और बोधिसत्व सुमेध अन्तर्ध्यान हो गये, तभी एक छोटा सफेद हाथी का बच्चा महामाया के समीप आया और महामाया की कोख में प्रवेश कर गया, और महामाया ने गर्भ धारण किया। महामाया ने सुबह उठकर शुद्धोधन को स्वप्न के बारे में बताया, लेकिन राजा उस स्वप्न का अर्थ बताने में असमर्थ थे, उन्होंने शकुन विद्या में निपुण आठ विद्वानों को महल में आमंत्रित किया, उन्हें स्वादिष्ट भोजन करा कर राजा ने महामाया के स्वप्न की बात बताई, सारी बात सुनकर विद्वानों ने बताया कि आप एक पुत्र के पिता बनने वाले हैं, और वह बालक बड़ा होकर चक्रवर्ती सम्राट होगा या बुद्ध बनेगा और सम्पूर्ण जगत का अंधेरा दूर करेगा।

Gautam Buddha
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महामाया ने दस मास तक बच्चे को अपनी कोख में रखा। प्रसव का समय नजदीक आते देख महामाया ने राजा शुद्धोधन से अपने मायके देवदह जाने की इच्छा व्यक्त की। शुद्धोधन ने स्वीकार करते हुए नौकर-चाकरों और दासियों के साथ देवदह के लिए पालकी में बिठाकर महामाया को भेज दिया। महामाया रास्ते में एक बहुत सुन्दर लुम्बिनी वन को देखकर अपनी पालकी रुकवा कर प्रकृति का आनंद लेने के लिए एक पेड़ के नीचे खड़ी हो गईं। तेज हवाओं के प्रभाव से पेड़ की शाखा ऊपर-नीचे हो रही थी। महामाया ने जैसे ही टहनी को पकड़ा तो जोर से झटका लगा और खड़े-खड़े ही रानी महामाया को प्रसव हो गया । रानी महामाया ने वैसाख पूर्णिमा के दिन एक पुत्र को जन्म दिया। राजा शुद्धोधन को इस बात की सूचना मिली तो उन्होंने महामाया को वापस बुला लिया। सारे महल में और कपिल वस्तु में खुशी का माहौल छा गया। उस समय हिमालय क्षेत्र में एक असित मुनि रहते थे। उन्होंने देवताओं द्वारा बुद्ध के आगमन पर उनका जयघोष करते सुना। अपनी अन्तर्दृष्टि से असित मुनि ने देखा कि बुद्ध बनने वाले बालक का जन्म कपिलवस्तु के राजा के महल में हुआ है। असित मुनि शीघ्र ही राजा शुद्धोधन के महल में पधारे और बालक को देखने की इच्छा व्यक्त की। शुद्धोधन असित मुनि को महामाया के कक्ष में ले गए, वहां बालक की परिक्रमा करके असित मुनि ने बालक के पैरों में सिर झुका कर नमन किया और उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। राजा ने रोने का कारण पूछा, असित मुनि ने बताया कि मैं इसलिए रो रहा हूँ कि जब यह बालक बड़ा होकर बुद्ध बनेगा मैं जीवित नहीं रहूंगा। राजा शुद्धोधन ने असित मुनि को भोजन करा कर विदा किया। पांचवें दिन बालक का नामकरण संस्कार किया गया और बालक का नाम सिद्धार्थ गौतम रखा गया। नामकरण के दिन ही महामाया को भयंकर रोग हो गया और सिद्धार्थ के जन्म के सातवें दिन महामाया की मृत्यु हो गई। सिद्धार्थ का पालन-पोषण महामाया की सगी छोटी बहन और शुद्धोधन की दूसरी पत्नी महाप्रजापति गौतमी ने किया। एक दिन कोई उत्सव, था राजा शुद्धोधन अपने खेतों में हल जुतवाने के लिए एक हजार लोगों के साथ खेतों पर गए थे, साथ में नौकर व मंत्री तथा दास-दासियां भी गए और बालक सिद्धार्थ को भी ले गए।

वहां एक जामुन के पेड़ के नीचे सिद्धार्थ का बिस्तर लगाकर कनातों से घिरवा कर देखभाल के लिए दासियों को छोड़ राजा खेतों में सोने के हल से नौकरों के साथ जुताई करने लगे शोरगुल की आवाज सुनकर दासियां भी सिद्धार्थ को अकेला छोड़कर भीड़ को देखने में व्यस्त हो गईं, बालक सिद्धार्थ मौका पाकर बिस्तर से उठ कर पालती लगाकर जामुन के पेड़ के नीचे बैठ गया और ध्यान साधना में लीन हो गया, सूरज ढल चुका था पेड़ों की छाया टेढ़ी हो गई थी, लेकिन जब दासियां वापस सिद्धार्थ के पास पहुंचीं उन्होंने सिद्धार्थ को तपस्या करते हुए देखा और देखा कि उस जामुन के वृक्ष की छाया बिल्कुल सीधी थी, अचंभित हो कर राजा को बताया राजा ने स्वयं यह नजारा देखा और हाथ जोड़कर अपने पुत्र सिद्धार्थ को नमन किया। सिद्धार्थ अब धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था।
राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ को शिक्षित करने के लिए उन्ही आठ विद्वानों को बुलाया जिन्होंने महामाया के स्वप्न की व्याख्या की थी। शिक्षा प्राप्त करते-करते सिद्धार्थ युवावस्था में प्रवेश कर चुके थे। शुद्धोधन ने सिद्धार्थ को युद्ध कला में निपुण करने के लिए भी शिक्षकों का प्रबंध किया।

सोलह वर्ष की आयु में सिद्धार्थ का विवाह दण्डपाणि की रूपवान पुत्री यशोदा से हुआ। बीस वर्ष की आयु में प्रत्येक शाक्य पुत्र को शाक्यों के संघ में शामिल होना आवश्यक था, इसलिए बीस वर्ष की आयु में सिद्धार्थ को भी शाक्यों के संघ में शामिल होना पड़ा। उन्तीस वर्ष की आयु थी सिद्धार्थ की जब नदी के जल बंटवारे को लेकर पड़ौसी राज्य के कोलियों से झगड़ा हो गया।
युद्ध की नौबत आ गई, लेकिन सिद्धार्थ को खून-खराबा पसंद नहीं था, इसलिए सिद्धार्थ ने युद्ध में भाग लेने से मना कर दिया। शाक्य संघ के सेनापति ने सिद्धार्थ को दण्ड देने के लिए तीन विकल्प रखे जिनमें से एक को चुनना था। पहला विकल्प था कि सिद्धार्थ के परिवार की सभी पैतृक सम्पत्ति जब्त कर ली जाए, दूसरा मृत्युदंड व तीसरा देश निकाला अर्थात गृहत्याग। सिद्धार्थ ने गृहत्याग को अपने उपयुक्त समझ कर उन्तीस वर्ष की आयु में आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गृहत्याग किया जिसे ‘‘महाभिनिष्क्रमण‘‘ कहा जाता है। उसी दिन सिद्धार्थ व यशोदा के पुत्र राहुल का जन्म हुआ था, गृहत्याग के बाद सिद्धार्थ को अपनी ध्यान साधना को आगे बढ़ाने का भी अवसर प्राप्त हुआ। गृहत्याग कर सिद्धार्थ के घोड़े कन्थक ने एक रात में तीस योजन की दूरी तय की। तीन राज्यों की सीमा पार करके भोर में अनोमा नदी के तट पर पहुंच कर अपने सेवक छन्दक को अपने राजसी वस्त्र तथा आभूषण उतार कर दे दिए और वापस कपिल वस्तु भेज दिया। वह स्वयं गेरुए वस्त्र धारण करके संन्यासी (परिव्राजक) बन गए और अपनी तलवार से खुद ही स्वयं के सिर के बाल काट कर दो अंगुल के कर दिए जो स्वतः ही बोधिसत्व सिद्धार्थ के सिर से परिक्रमा क्रम में लिपट गए, सिद्धार्थ ने अकेले ही राजगृह की ओर पैदल ही प्रस्थान किया। वह राजगृह के समीप पहुंचकर ध्यान साधना सीखने के उद्देश्य से पहले भारद्वाज ऋषि के आश्रम में रुके और कुछ दिन पश्चात वहां से विदा होकर ध्यान साधना में पारंगत ऋषि आलार कालाम के यहां और आगे की ध्यान साधना के लिए पहुंचे। अंत में सिद्धार्थ ने उद्दक पुत्त राम के यहां पहुचंकर ध्यान साधना की और भी ऊंचाई व गहनता को बहुत कम समय में सीख लिया, लेकिन सिद्धार्थ अभी भी असंतुष्ट थे। वह वहां से भी विदा लेकर राजगृह के समीप एक पर्वत की तलहटी में पर्ण कुटी बनाकर उसमें अकेले ही ध्यान साधना करने लगे वहीं पर पांच परिव्राजकों से उनकी मुलाकात हुई जिनके नाम- कोडिन्य, महानाम, अवजीत, वप्प व भद्रक थे। इन पांच परिव्राजकों में सबसे बड़े कोडिन्य थे वह उन्हीं आठ ब्राह्मणों में से एक थे जिन्होंने सिद्धार्थ की माता महामाया के स्वप्न की व्याख्या की थी उस वक्त कोडिन्य ही सबसे कम उम्र के ब्राह्मण थे जो कि अब सिद्धार्थ के साथ ही ध्यान साधना का अभ्यास करने लगे। इस क्रम को लगातार पांच वर्ष से ज्यादा समय बीत गया लेकिन सफलता अभी भी कोसों दूर थी। फिर उन्होंने राजगृह से उरुवेला की तरफ प्रस्थान किया, वहां पहाड़ियों पर रहकर फिर से ध्यान साधना में रत रहने लगे।
सिद्धार्थ का शरीर सूखकर कांटा हो गया था और शरीर की सारी हड्डियां साफ दिखाई दिखाई देने लगीं। एक दिन वह अपने साथियों को छोड़कर उरुवेला ग्राम की ओर आकर एक वृक्ष के नीचे आसन लगाकर बैठ गए। उरुवेला ग्राम की ग्वाला पुत्री सुजाता ने कोई मन्नत मांग रखी थी जो अब पूर्ण हो चुकी थी, इसी उपलक्ष्य में सुजाता ने वृक्ष देवता को खीर दान करने का निश्चय किया। सुजाता ने अपनी एक दासी को साफ-सफाई करने के लिए उसी वृक्ष के पास भेजा जहां सिद्धार्थ विराजमान थे। दासी ने चकित होकर जल्दी से सुजाता ने बताया कि आज तो वृक्ष देवता मानव रूप में स्वयं विराजमान हैं।

सुजाता बोली कि यदि तेरी बात सत्य है तो आज से तू दासता से मुक्त हो गई । सुजाता श्रृंगार करके सोने की थाली में शुद्ध दूध की बनाई खीर डालकर वृक्ष के पास पहुंची। दासी की बात सत्य थी, सुजाता ने सिद्धार्थ को वृक्ष देवता जानकर खीर अर्पित की, सिद्धार्थ ने सुजाता की खीर खाकर समीप में बह रही निरंजना नदी में स्नान करके उरुवेला वन के तरफ प्रस्थान किया। वह हरी लंबी कुशा घास का आसन बनाकर एक पीपल के पेड़ को नमन करके उसके नीचे संकल्प लेकर बैठ गए कि जब तक मुझे ज्ञान प्राप्त नहीं होगा मैं तब तक उठूंगा नहीं। एक सप्ताह तक लगातार ध्यान साधना करते हुए उन्हें नकारात्मक शक्तियों ने भी परास्त करने की कोशिश की लेकिन सिद्धार्थ के संकल्प के आगे वह सब हार मान चुकी थी और ठीक एक सप्ताह के पश्चात वैशाख पूर्णिमा के दिन उन्हें अद्भुत ज्ञान मिला जिसे संबोधि कहते हैं । सिद्धार्थ अब श्बुद्धश् बन चुके थे उन्होंने 49 दिन अर्थात 7 सप्ताह तक संबोधि का निरीक्षण-परीक्षण करने में व्यतीत किया। अब वे बोधगया से चल पड़े और आषाढ़ पूर्णिमा के दिन वाराणसी के निकट सारनाथ के इसीपत्तन मृगदाव वन में पहुंचे जहां पांचों परिव्राजक निवास कर रहे थे जोकि सिद्धार्थ के सुजाता द्वारा दी गई खीर खाने से नाराज हो गए थे और सिद्धार्थ को पथभ्रष्ट कहकर नाराज होकर उरुवेला छोड़कर सारनाथ में वास करने लगे।

उनकी मान्यता थी कि अन्न छोड़कर भूखे पेट रहकर ही ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है । जब सिद्धार्थ इसिपत्तन मृगदाय वन में पहुंचे, तो पांचों परिव्राजकों ने सिद्धार्थ को दूर से आते देखा और आपस में विचार किया कि कोई भी व्यक्ति सिद्धार्थ का स्वागत नहीं करेगा एक आसन डाल दा,े बैठना होगा बैठ जाएगा नहीं तो चला जाएगा, लेकिन जैसे-जैसे सिद्धार्थ उनके समीप आते जा रहे थे उन पांचों का हृदय श्रद्धा से भरता जा रहा था जब वे बिल्कुल पास आ गए उन पांचों ने उनकी आवभगत शुरू कर दी और अपने निश्चय पर कायम नहीं रह सके। उन्होंने सिद्धार्थ के हाथ पैर धुलवाए, पानी पिलाया, आसन बिछाया व आराम से बैठने का आग्रह किया। बुद्ध के बैठने पर उन पांचों ने पूछा कि हम लोगों को छोड़ देने के बाद उन्होंने क्या किया, सिद्धार्थ जो अब बुद्ध बन चुके थे उन्होंने सारी बात विस्तार से बताते हुए कहा कि अब उन्हें संबोधि प्राप्त हो चुकी है और अब वह ष्बुद्धष् बन चुके है। उन पांचों ने आग्रह किया कि उन्हें भी बताएं वह कौन सा मार्ग है।

तब उन्होंने उन पांचों परिव्राजकों को चार आर्य सत्य, नैतिकता के लिए पंचशील, और मुक्ति के लिए आर्य अष्टांगिक मार्ग को बताया। उन पांचों परिव्राजकों को ज्ञान चक्षु प्राप्त हुए, इसिपत्तन मृगदाय वन को ही आज सारनाथ के नाम से जाना जाता है। यहां पर गौतम बुद्ध ने धम्मचक्र प्रवर्तन किया व भिक्खु संघ की स्थापना की और प्रथम वर्षावास यहीं व्यतीत किया।

वर्षावास समाप्ति होने पर यह संख्या 60 हो गई तथागत ने उन सभी भिक्षुओं को आदेश दिया कि अब आप इस कल्याणकारी मार्ग को अलग-अलग दिशाओं में जाकर लोगों को बताओ। वहीं से ‘‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय‘‘ का उपदेश दिया गया। अब तथागत बुद्ध का धम्म बहुत ही तेजी से फैल रहा था उस समय के अन्य मत व दर्शन वाले लोगों को और दार्शनिकों के विरोधी स्वभाव होने के बावजूद भगवान बुद्ध ने उन्हें बहुत प्रभावित किया और ज्यादातर लोग व दार्शनिक बुद्ध के मानवतावादी धर्म में शामिल हो गए।

बुद्ध और उनके दर्शन व सिद्धांत के सामने कोई टिक नहीं पाता था। बुद्ध का धम्म पूरी तरह से पाखंड, अंधविश्वास, आत्मा, और ईश्वर का विरोधी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का था। तथागत बुद्ध की चारिकाओं का व धम्मोपदेश का सिलसिला निरंतर चलता रहता था। उन्हें 35 वर्ष की आयु में बुद्धत्व प्राप्त हुआ था और 45 वर्ष तक मानव के कल्याण में लगे रहे और भ्रमण करते हुए भारत के बहुत बड़े भू-भाग तक गए। मुख्य रूप से उनकी यात्राएं पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में होती थीं, लेकिन पाली साहित्य के अनुसार वह कुरूक्षेत्र, सागल, ब्रजभूमि, अवंती, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रा विशाखापट्टनम, कलिंग भी गए। बलरामपुर के पास श्रावस्ती स्थित जेतवन महाविहार व राजगीर स्थित वेणुवन महाविहार और वैशाली में कूटागार शाला विहार आज भी देखे जा सकते हैं। 80 वर्ष की आयु में उन्होंने कुशीनगर में दो साल वृक्षों के मध्य वैशाख पूर्णिमा को अपना शरीर त्याग दिया जिसकी घोषणा उन्होंने वैशाली में अंतिम वर्षावास समाप्त करने के बाद शरीर त्यागने से 3 माह पूर्व ही कर दी थी।
‘‘भवतुै सब्ब मंगलं‘‘

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