Story Of The Mountain Man Dasrath Manjhi – दशरथ मांझी

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दशरथ मांझी
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दशरथ मांझी

दशरथ मांझी

दशरथ मांझी, एक ऐसा नाम है जिनके नाम से पर्वत भी अपना सिर झुकाता था। उन्हें ‘‘माउंटेन मैन‘‘ के नाम से भी जाना जाता है। दशरथ मांझी का जन्म फरवरी 1934 में बिहार के गया जिले में स्थित गहलौर गांव में हुआ था। दशरथ मांझी की एक अलग तरह की और ऐतिहासिक ‘‘प्रेम कहानी‘‘ है जिसमें उनका अपनी पत्नी के प्रति अटूट प्रेम और समर्पण दिखता है। एक प्रेम जिसने रचा एक ऐसा इतिहास जो अद्वितीय एवं अविस्मरणीय है। उनका जीवन बहुत ही आर्थिक गरीबी में बीता। गरीबी से उनके परिवार के हालात इतने बुरे थे कि एक वक्त की रोटी के लिए भी उनके पास पैसे नहीं हुआ करते थे। वे कड़ी मेहनत करके किसी तरीके से अपने परिवार का और अपना गुजर-बसर कर रहे थे। बात उस समय की है जब बाल विवाह प्रचलन में था। इसी प्रथा में दशरथ मांझी का भी विवाह हुआ। देश को आजादी मिलने के बाद भी गहलौर गांव में न तो बिजली थी, न पानी, न ही पक्की सड़कें और न ही कोई अस्पताल था। यहां तक कि पानी लेने भी एक बड़ी पहाड़ी को पार करके जाना होता था। दशरथ मांझी की पत्नी फाल्गुनी रोज की तरह दोपहर का भोजन पानी लेकर खेतों में जा रही थी, जिसके लिए उन्हें उस भीषण गर्मी में पहाड़ पर चढ़ना था। दुर्भाग्य से फाल्गुनी का पैर फिसला और वह पहाड़ से नीचे गिर गई और इधर भूखा दशरथ भोजन की प्रतीक्षा कर रहा था। तभी गांव के किसी व्यक्ति ने दशरथ को खबर दी कि उसकी पत्नी पहाड़ से गिर गई है। दशरथ घबरा गए और अपनी पत्नी को देखने के लिए दौड़ पड़े। जब वह अपनी पत्नी के पास पहुंचे तो देखा उनकी पत्नी खून से लथपथ पड़ी हुई है। पत्नी को सबसे नजदीकी अस्पताल जो कि 70 किलोमीटर दूर था, लेकर गए। नियति को कुछ और ही मंजूर था, अस्पताल के डॉक्टर ने उनकी पत्नी को मृत घोषित कर दिया। पत्नी की मौत ने दशरथ मांझी के अंतर्मन को झकझोर दिया। उनकी पत्नी के साथ जो बीता, ऐसा किसी और के साथ न हो, ऐसा विचार करके वे गांव और शहर के बीच की दूरी को कम करने के उपाय सोचने लगे। उनके जेहन में बार-बार वो पहाड़ ही दिखाई दे रहा था, जिसने उनकी जिदंगी बदल दी। उन्होंने सोचा कि यदि किसी तरीके से यह पहाड़ टूट जाए तो यहां से एक मध्यम मार्ग बन जाएगा, जिसकी वजह से कभी किसी के साथ ऐसी अनहोनी नहीं होगी।

इस विशालकाय पर्वत को तोड़ने के लिए मांझी और गांव के लोगों ने सरकार से बात की, लेकिन सरकार ने उनकी बातों को नजरअंदाज कर दिया। आखिर दशरथ मांझी ने खुद अकेले ही पहाड़ को खोदने और तोड़ने का संकल्प लिया। लेकिन काम आसान नहीं था क्योंकि इस काम के लिए उन के पास कोई औजार भी नहीं थे। लेकिन कहते हैं ना कि जहां चाह वहां राह, उन्होंने इस बाधा को दूर करने का भी उपाय खोज निकाला। उन्होंने अपनी बकरी बेचकर हथौड़ा और फावड़ा खरीदा। यहां तक कि अपने रहने के लिए उन्होंने अपनी झोपड़ी भी वहीं बना ली ताकि वे दिन रात लग कर इस काम को कर सकें। इस काम से उनके परिवार को भारी असुविधाओं का सामना करना पड़ रहा था। कई बार तो खुद दशरथ को भूखे पेट ही काम करना पड़ता था।

यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि दशरथ मांझी ने पर्वत को काटने के लिए किसी भी मशीन का सहारा नहीं लिया। यह काम करते हुए उनका कई लोगों ने खूब मजाक भी उड़ाया कि ‘‘छेनी हथौड़ी से पहाड़ तोड़ने चले हैं साहब‘‘ लेकिन जैसे -जैसे पहाड़ टूटने लगा, आसपास के गांव वाले भी उनको देखने आने लगे और यह चर्चा इतनी ज्यादा होने लगी कि आसपास के गांव भी उनके कार्य की सराहना करने लगे।

अब उन्हें ना खाने की और नहि पानी पीने की चिंता थी, अब उनपर बस एक धुन सवार थी कि पहाड़ को तोड़ कर एक ऐसा मार्ग बनाया जाए जिससे सभी लाभान्वित हो सकें। अपने कड़े परिश्रम और लगन से लगातार 22 वर्षों तक दिन-रात एक करके उन्होंने सभी को अचंभित कर दिया। 1960 में शुरू करके उन्होंने अपने असाधारण प्रतिबद्धता से असंभव लगने वाला यह काम आखिरकार 1982 में पूरा कर दिखाया।

अपने अकेले के कठोर परिश्रम से उन्होंने 360 फुट लंबा, 25 फुट ऊंचा और 30 फुट चैड़ा पहाड़ काट कर 70 किलोमीटर की दूरी को महज 7 किलोमीटर में बदल डाला। इस करिश्माई काम के बाद गांव वालों के लिए दशरथ मांझी साधु जी हो गए। उन्हें माउंटेन मैन की उपाधि से भी नवाजा गया । जिसके बाद दुनिया में वे माउंटेन मैन के नाम से पहचाने जाने लगे। उनके इस असाधारण काम और अथक मेहनत पर आज ढेरों फिल्में बनी है। दशरथ मांझी ने अपने इस काम की प्रेरणा अपनी पत्नी और उनके प्रेम को बताया। उनके शब्दों में उस प्रेम ने ही पर्वत तोड़कर रास्ता बनाने की ज्योत हृदय में जलाई।

डॉ नीरज टंडन

डॉ नीरज टंडन

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