एकलव्य
एकलव्य भारत के प्रमुख मूलनिवासी ‘‘भील‘‘ जाति में जन्में एक महानतम धनुर्धर थे। उनके पिता का नाम हिरण्य धनु‘‘ था, जो कि मग्ध नरेश जरासंध की सेना के एक प्रमुख सेनापति थे। ‘‘हिरण्य धनु‘‘ वनवासी होने के साथ-साथ ‘‘भील‘‘ जाति कबीले के शासक भी थे और जंगलों में ही निवास करते थे। एकलव्य को बचपन से ही एक महान धनुर्धर बनने की धुन सवार थी क्योंकि बचपन से ही उन्होंने अपने समाज को प्रताड़ित होते हुए देखा था। वे धनुर्विधा में पारंगत होकर एक बड़े राज्य की स्थापना करना चाहते थे। साथ ही एकलव्य निषादों ‘‘भील समुदाय की प्रमुख उपजाति‘‘ व दूसरी आदिवासी जातियों को इकट्ठा करके सशक्त सेना का निर्माण करना चाहते थे। अपने इसी सपने को लेकर ‘‘एकलव्य‘‘ समय आते-आते धनुर्विधा में पारंगत हो गए। द्रोणाचार्य जोकि धनुर्विधा और दूसरी युद्ध कला सिखाने का कार्य करते थे। एक दिन अपने मन में एक महान धनुर्धर बनने के सपने को लेकर एकलव्य अपने पिता से अनुमति लेकर द्रोणाचार्य के आश्रम में आकर उन्हें खोजने लगे, तभी द्रोणाचार्य ने उनको देखा और उनका आश्रम में आने का कारण पूछा। एकलव्य ने उनको अपना परिचय दिया और उनको अपना गुरु मानकर धनुर्विधा सीखने का आग्रह किया। एकलव्य के शूद्र और निषाद पुत्र होने के कारण द्रोणाचार्य ने उन्हें धनुर्विधा सिखाने से इंकार कर दिया साथ ही उनके उच्च कुलीन शिष्यों जिनमें अर्जुन प्रमुख था, ने एकलव्य का परिहास करके उनको आश्रम से निकाल दिया। इन सबसे आहत होकर एकलव्य का साहस जरा भी कम नहीं हुआ और उन्होने मन में ही द्रोणाचार्य को गुरु मानकर, उनकी एक मिट्टी की प्रतिमा बनाकर जंगल में स्वतः ही अभ्यास शुरू कर दिया। देखते ही देखते एकलव्य स्वतः के अभ्यास से एक महान धनुर्धर बन गए। उनके पराक्रम को देखकर भील जाति के लोगों में एक आत्मविश्वास उत्पन्न होने लगा। उनको एकलव्य के रूप में उनका अगला सम्राट दिखाई देने लगा था। एकलव्य इतने बड़े धनुर्धारी बन चुके थे की धनुष चलाने के मामले मे महाभारत के पात्र अर्जुन भी इनके सामने बौना नजर आता था।
एकलव्य का जिक्र महाभारत में मिलता है पिता की मृत्यु के बाद वह न केवल अपने राज्य का संचालन करता रहा बल्कि निषाद भीलो की एक सशक्त सेना गठित करके अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। एक दिन गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्यों के साथ जंगल में भ्रमण करने आए। तभी एक जंगली कुत्ता उनको देखकर भौंकने लगा। वहीं पास में ही ‘‘एकलव्य‘‘ अपनी धनुर्विधा का अभ्यास कर रहे थे। एकलव्य ने कुत्ते को देखकर एक ही वार से कुत्ते का मुंह बाणों से भर दिया परंतु कुत्ते को जरा भी हानि नहीं हुई। कुत्ते का मुंह बाणों से भर गया था, पर खून की एक बूंद भी नहीं निकली थी। यह करतब देखकर द्रोणाचार्य स्तब्ध थे। कुत्ते को देखकर द्रोणाचार्य ने एकलव्य से पूछा कि आपको इतनी उत्तम धनुर्विधा किसने सिखाई। एकलव्य ने उनको पूरी कहानी बताई और उनको ही अपना गुरु माना।
एकलव्य ने द्रोण को मिट्टी की मूर्ति भी दिखाई। यह सब देखकर अर्जुन आग बबूला हो गया क्योंकि अर्जुन भी अपने आपको एकलव्य से बेहतर धनुर्धर नहीं देख पा रहा था क्योंकि अर्जुन को श्रेष्ठ धनुर्धारी बनने के हठ के कारण द्रोण को एकलव्य की ये प्रतिभा रास नहीं आई और उन्होंने गुरू दक्षिणा के रूप में एकलव्य के दाँए हाथ का अंगूठा मांग लिया, एकलव्य ने भी निसंदेह और निसंकोच अपना अंगूठा काटकर उनके चरणों में समर्पित कर दिया। यह सब होने के बावजूद भी एकलव्य ने हार नहीं मानी और एक नए भारत का इतिहास बनाते हुए दाँए हाथ की उंगली से धनुष चलाना शुरु कर दिया।
एकलव्य इतने प्रतिभाशाली थे की उनको अपने हाथ के अंगूठे ना होने का जरा सा भी आभास नहीं हुआ और उन्होने अपनी सर्वश्रेष्ठ मेहनत से धनुर्विद्या में निपुणता हासिल कर ली। एकलव्य का अंगूठा कट जाने के बाद एकलव्य अपने मध्य उंगली का प्रयोग करके तो धनुष चलाने लगे थे वहीं से उन्होंने तुरंत तीरंदाजी करने का आधुनिक तरीका खोज निकाला था। वास्तव में यह तरीका बेहतर था क्योंकि वर्तमान समय में इसी प्रकार से तीरंदाजी होती है। वर्तमान काल में कोई भी व्यक्ति उस तरह से तीरंदाजी नहीं करता जिस प्रकार अर्जुन किया करता था। एकलव्य द्वारा अपनाया गया नया तरीका ही तीरंदाजी में अपनाया जाता है। इस तरह से इतिहास में ‘‘एकलव्य‘‘ की गुरु दक्षिणा, द्रोणाचार्य का छल कपट और वर्णव्यवस्था का अभिशाप हम मूलनिवासी कभी नहीं भूल सकते।
पवित्रा रानी गौतम