Thursday, September 28, 2023
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Homeकही हम भूल ना जायेFULL STORY OF MASS LEADER KARPURI THAKUR - कर्पूरी ठाकुर

FULL STORY OF MASS LEADER KARPURI THAKUR – कर्पूरी ठाकुर

कर्पूरी ठाकुर

कर्पूरी ठाकुर

 

कर्पूरी ठाकुर एक वृ़हद समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले सर्वसुलभ एक असाधरण व्यक्तित्व के धनी, सामाजिक न्याय के ध्वज वाहक, समाज के अप्रितम सैनानी, वचिंतो के पैरोकार थे। स्वंतत्रता पश्चात् बिहार के शिक्षा मंत्री के साथ ही उपमुख्यमंत्री का कार्यभार सँभाला और दो बार मुख्यमंत्री पद को सुशोभित करने वाले कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी 1924 को ब्रिटिश शासन काल में बिहार के समस्तीपुर जिले के एक छोटे गाॅव पितौंझियां (वर्तमान नाम कर्पूरी ठाकुर) में हुआ था। उनकी माता का नाम रामदुलारी देवी व पिता का नाम गोकुल था। जो जाति एवं व्यवसाय दोनों से ही नाई थे। उनकी पत्नी का नाम फुलशेरी देवी था। कर्पूरी ठाकुर जी का बचपन अन्य गरीब परिवार के बच्चों की तरह ही खेलकूद एवं पशुओ को चराने में बीता, उन्हे दौड़ने, तैरने, गीत गाने, ढ़पली बजाने और पढ़ने का शौक था। उनके पिता ने 6 वर्ष की आयु में वर्ष 1930 में गाॅव की ही एक पाठशाला में दाखिला कराया। 1940 में मैट्रिक प्रथम श्रेणी में पास किया इससे उनके पिता जी खुश होकर कर्पूरी ठाकुर को गाॅव के ही एक समृद्धशाली व्यक्ति के पास ले गये और अपने पुत्र की उपलब्धि की प्रशंसा के बारे में बताने लगे तो उस व्यक्ति ने अपनी दोनो टांगे टेबिल पर रखते हुए कहा- ‘‘अच्छा फस्र्ट डिवीजन से पास हुए हो? आओ मेरा पैर दबाओ तुम इसी काबिल हो, तुम फस्र्ट डिविजन से पास हो या कुछ भी बन जाओ रहोगे हमारे पैर के नीचे ही‘‘।

अपनी सफलता के बदले उन्हे सामन्तों द्वारा यह अपमान झेलना पड़ा किन्तु वे किसी और मिट्टी के ही बने थे, सब कुछ सह गये। उनके पिता खुद के अशिक्षित रह जाने की कसक के कारण बेटे की पढ़ाई को लेकर सजग थे। उस समय पिछड़ी जातियों में पढ़ाई-लिखाई करना आसान नही था, इक्का दुक्का ही पढ़ाई पूरी कर पाते थे।
उस काल-खण्ड में दलित पिछड़े वर्ग के बच्चों का विद्यालय में प्रवेश पाना अत्यधिक चुनौतीपूर्ण था और अगर प्रवेश मिल भी गया तो टिके रहना उससे भी अधिक चुनौती पूर्ण था। उन्होने दरभंगा के चन्द्रधारी मिथला से द्वितीय श्रेणी से पास करने के पश्चात् उसी काॅलिज में बीए में नामांकन करा लिया था। 1942 में पढाई छोडकर भारत छोडो आन्दोलन में भाग लिया और जयप्रकाश नारायण द्वारा गठित ‘‘आजाद दस्ता‘‘ में सक्रिय सदस्य बने।
आर्थिक तंगी से निजात पाने हेतु उन्होने गाॅव के ही एक विद्यालय में 30 रुपये प्रतिमाह में प्रधानाध्यापक पद पर कार्य करना शुरु किया उन्होने दिन में अध्यापक और रात में “आजाद दस्ता‘‘ के सदस्य के रुप में मिली जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया।

23 अक्टूबर 1943 की अर्धरात्रि के 2 बजे ‘‘भारत छोड़ो अन्दोलन‘‘ में ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हे दरभंगा जेल में डाल दिया गया। जहां वे 26 महीने जेल में रहे। कर्पूरी ठाकुर जी स्वतंत्रता से पहले दो बार तथा स्वतंत्रता पश्चात् 18 बार जेल गये।स्वंतत्रता प्राप्ति के पश्चात् ‘‘प्रथम आम चुनाव‘‘ में समस्तीपुर के ‘‘ताजपुर विधानसभा‘‘ क्षेत्र में कर्पूरी ठाकुर ‘‘सोशिलिस्ट पार्टी‘‘ के टिकट पर भारी बहुमत से विजयी बने। वे बिहार विधानसभा चुनाव कभी नहीं हारे। 1952 से लेकर 1988 तक बिहार विधानसभा के सदस्य रहे। उन्होने 1967 में पहली बार उपमुख्यमंत्री के साथ ही शिक्षा मंत्री की भूमिका भी बेहद संवेदनशीलता के साथ निभाई। शिक्षा मंत्री रहते हुए उन्होने मैट्रिक में अग्रेजी पास करने की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया। जिस कारण दलित पिछड़ो के बच्चे मैट्रिक पास करने लगे, कर्पूरी ठाकुर समाज की वास्तविक बीमारी समझते थे। वे जानते थे कि पिछड़ो, दलितो, वचितों एवं महिलाओ में शिक्षा का प्रचार-प्रसार किये बगैर शिक्षित समाज एवं उन्नत राष्ट्र के निर्माण का सपना कभी पूरा नही किया जा सकता। अपने इस समृद्ध सपने को पूर्ण करने हेतु कर्पूरी ठाकुर ने अपने शिक्षा मंत्री व मुख्यमंत्रित्व काल में पहले आठवीं तक और फिर दसवीं तक की शिक्षा निशुल्क कर दी। जिससे साक्षरता बढाने के साथ ही सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक असमानता की बढती खाई को कम करने का प्रभावी सामाजिक कार्य किया। इस शासनादेश से दलित पिछड़े वंचित वर्ग के बच्चों में शिक्षा के प्रति ललक जगी और वे भी सफल श्रेणी में शामिल होने लगे।
इस पूरे प्रकरण से उंची जाति के लोगो ने विरोध शुरु किया और जो बच्चे बिना अंग्रेजी के मैट्रिक पास किया करते थे, उनको ‘‘कर्पूरी डिवीजन‘‘ से पास कहकर उनका मजाक उड़ाया करते थे। उस काल में प्राथमिक विद्यालयो की संख्या पर्याप्त नही थी। जिस कारण शिक्षा के बजट में बढा़ेतरी करके नये पाठशालाओं के निर्माण पर जोर दिया। उन्होंने समस्त दसवीं तक के स्कूलों का सरकारीकरण कर दिया। इनकी नीतियों से प्रभावित होकर मिशनरी स्कूलों ने भी गरीब बच्चों की स्कूल फीस माफ करने के साथ ही हिन्दी में शिक्षा देने का संकल्प लिया। इन ऐतिहासिक निर्णयो का परिणाम यह रहा कि बिहार में शिक्षा के क्षेत्र में दलितो, पिछडे़, वंचित वर्ग के छात्रों की भी भागदारी बढ़ने लगी। 1970 एवं 1977 के दौरान वे बिहार के दो बार मुख्यमंत्री बने। 1970 में बिहार के वह पहले गैर काग्रेंसी मुख्यमंत्री बने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में लिए गये कुछ महत्वपूर्ण फैसले निम्नलिखित है-
1 बिहार में मैट्रिक तक की शिक्षा निशुल्क करने की घोषणा की।
2 राज्य के सभी विभागों में हिन्दी में कार्य करना अनिवार्य किया।
3 उर्दू को राज्य की द्वितीय भाषा का दर्जा दिया।
4 किसानों को बड़ी राहत देते हुए उन्होने गैर लाभकारी जमीन पर माल गुजारी टैक्स समाप्त कर दिया। जिससे बिहार के    किसानों को काफी राहत मिली।
5 बिहार राज्य कर्मचारियों के मध्य असंगत वेतन और हीन भावना को समाप्त करते हुए समान वेतन आयोग लागू किया।
6 उस दौर में सचिवालय में चतुर्थ श्रेणी कर्मियो के लिए लिफ्ट का प्रयोग वर्जित था उन्होने सभी वर्गो के लिए लिफ्ट का       प्रयोग सुलभ कराया।
7 बिहार में शराब को पूर्णरुप से निषिध्द किया गया।
8 अपने मुख्यमंत्रित्व काल में बिहार में पिछड़े इलाकों में कई स्कूल और काॅलेज खोले गये।
9 उन्होंनेे 8 प्रतिशत पिछड़ो के लिए व12 प्रतिशत अति पिछड़ो को आरक्षण को लागू किया।
10 उस दौर में उन्हे कहीं भी अन्तरजातिय विवाह की खबर मिलती थी उसमें वो पहुँच जाते थे।

वे समाज में एक तरह का बदलाव चाहते थे। बिहार में जो आज दबे-कुचले दलित, पिछड़ो को सत्ता में जो हिस्सेदारी मिली हुई है, उसकी नींव कर्पूरी ठाकुर द्वारा ही निर्मित की गयी थी। 21 मार्च 1978 को मुंगेरीलाल कमीशन को लागू करना कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्रित्व काल की सबसे अहम उपलब्धि थी। बिहार में सरकारी नौकरियों में आरक्षण लागू करने हेतु “कर्पूरी फाॅर्मूला” के अन्तर्गत 26 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। जिसमें 3 प्रतिशत महिलाए (सभी वर्गों की), 3 प्रतिशत गरीब सवर्ण व 20 प्रतिशत पिछड़ो के लिए आरक्षण लागू किया। बिहार “पिछड़े वर्ग को आरक्षण” देने वाला भारत का प्रथम राज्य बना।

राष्ट्रीय विकास परिषद (छक्ब्) की बैठकों में परम्परा को तोड़ते हुए हिन्दी में भाषण दिया और अपने राज्य की योजनाओं की स्वीकृति हेतु निरंतर माँग करते रहे। 1978 में कर्पूरी ठाकुर की सरकार ने सिचाई विभाग में 17000 पदों के लिए आवेदन मंगाए और हफ्ते भरबाद उनकी सरकार गिर गयी। कई इन दोनों का आपस में संबंध मानते हैं। क्योंकि पहले बैकडोर से अस्थायी बहाली कर दी जाती थी, और बाद में उसी में नियमित कर दिया जाता है। युवाओं को रोजगार देने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता इतनी थी की अपने कार्यकाल में उन्होंने एक कैंप आयोजित कर 9000 से ज्यादा इंजीनियरों और डाॅक्टरों को एक साथ नौकरी दी इतने बडे पैमाने पर एक साथ राज्य में इसके बाद कभी भी इंजीनियरो और डाॅक्टरों को नौकरी दी गयी। सरकार संचालन में उन्होने न तो अवांछित हस्तक्षेप कभी बर्दाश किया और न ही कभी अपमानों से विचलित हुए। उनका कहना था-
”हक चाहिए तो लड़ना सीखो।
कदम-कदम पर अड़ना सीखो।
जीना है तो मरना सीखो।”

वे समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के काफी करीबी थे। भारत में आपातकाल (1975-77) के दौरान उन्होने और जनता पार्टी के अन्य प्रमुख नेताओं ने “पूर्णक्रांति” आंदोलन का नेतृत्व किया। जिसका उद्देश्य भारतीय समाज में अहिंसक परिवर्तन लाने का था।उन्हें लालूप्रसाद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार जैसे प्रमुख नेताओं का गुरु कहा जाता है।

अपमान का घूँट पीकर भी किया सामाजिक बदलाव

जब कर्पूरी जी प्रथम बार मुख्यमंत्री बने उस दिन उनके पैतृक घर में बधाई देने वालाों के कारण उनके पिता को एक स्थानीय सामंत के यहा जाने में देरी हो गयी तो उस स्थानीय सामंत ने छड़ी से जननायक के पिता को पीटा। इसकी सूचना से डी.एम. के आदेश से पुलिस ने सामंत की कोठी को घेर लिया। ऐसे में कर्पूरी ठाकुर ने सामंत से कहा कि ”मेरे पिता जी वृद्ध हो गये है , आप कहें तो में आप की हजामत बना दूॅ”। सरकारी नौकरियों में 26 प्रतिशत एवं शिक्षण संस्थानो में 24 प्रतिशत आरक्षण लागू करने की अधिसूचना पर सामंतवादी व ब्राह्यणवादी सोच रखने वाले उस दौर के नेताओं ने उनका विरोध माँ बहन की गाली देकर बिहार से लेकर दिल्ली तक किया। कर्पूरी ठाकुर के लिए भद्दा मजाक, गाली-गलौच आम बात थी। उस समय के जनसंघ के नेता कैलाश पति मिश्रा ने उनका खुलकर विरोध किया

बिहार में कर्पूरी ठाकुर द्वारा लागू किया गया आरक्षण का विरोध जातिगत दंगो में बदल गया। सादगीपूर्ण जीवन एवं सम्मानः- कर्पूरी ठाकुर ने आजीवन बहुत ही सादगीपूर्ण जीवन ब्यतीत किया। उनके कुछ प्रसिद्ध जीवन वृतान्त निम्नवत है बक्सर में “लाॅ काॅलेज” का नाम “जननायक कर्पूरी ठाकुर विद्या महाविद्यालय” उनके नाम पर रखा गया। डाक विभाग द्वारा उनकी स्मृति में एक “स्मारक टिकट” जारी किया गया। भारतीय रेलवे द्वारा दरभंगा और अमृतसर के बीच चलने वाली ट्रेन को “जननायक एक्सप्रेस ट्रेन ” का नाम देकर सम्मानित किया गया। बिहार में कई स्टेडियम का नाम कर्पूरी ठाकुर के नाम से किया गया। अधिकांश जिलों के कई काॅलेजों में मूर्तियों की स्थापना कर्पूरी ठाकुर संग्रहालय समस्तीपुर और दरभंगा में जननायक कर्पूरी ठाकुर अस्पताल की स्थापना भी की गयी। वर्ष 2007 व वर्ष 2009 में “भारत रत्न” के लिए उनका नाम जिस खामोशी से हवा में चला उसी खामोशी से धरातल पर आ गया। कर्पूरी जी (मुख्यमंत्री) और यशवंत सिंह (उनके प्रधान सचिव) के मध्य एक चर्चित संवाद है जिसमें कर्पूरी जी ने कहा “आर्थिक दृष्टिकोण से आगे बढ़ जाना, सरकारी नौकरी मिल जाना, इससे क्या यशवंत बाबू आप समझते है कि समाज में सम्मान मिल जाता है?जो वंचित वर्ग के लोग हैं, उसको इसी से सम्मान प्राप्त हो जाता है क्या?नही होता है।” कर्पूरी जी सदन में अपनी बात, पूरी तैयारी के साथ और गरिमापूर्ण अभिव्यक्ति के साथ रखते थे। उन्होंने कभी किसी से सियासी कटुता नही रखी। कर्पूरी जी सादगी के पप्र्याय थे कहीं कोई आडंबर नही, कोई ऐश्वर्य प्रदर्शन नही। जैसा कि उनके जीवन संघर्ष के कुछ वृतान्ताों से पता चलता है। 1952 में कर्पूरी ठाकुर जब पहली बार विधायक बने तो उन्हे आस्ट्रिया जाने वाले प्रतिनिधि मंडल में चयन किया था। उनके पास कोट नही था, तो एक दोस्त से कोट माॅगा वो भी फटा हुआ था। यूगोस्लाविया के चीफ मार्शल टीटो ने कर्पूरी ठाकुर के फटे कोट को देखकर उन्हें एक नया कोट गिफ्ट कर दिया। 1974 में उनके छोटे बेटे के मेडिकल की पढाई में चयन हुआ। परन्तु वो बीमार हो गया। इंदिरा गांधी जी उनसे मिलने दो बार आयी और दिल्ली के लोहिया अस्पताल से एम्स में भर्ती कराया और इलाज हेतु सरकारी खर्च पर अमेरिका भेजने की पेशकश की, किन्तु कर्पूरी जी ने कहा वे मर जांएगे सरकारी खर्चे पर बेटे का इलाज नही करांयेगे। बाद में जेपी ने कुछ व्यवस्था कर न्यूजीलैंड भेजकर उनके बेटे का इलाज कराया। एक दिन प्रधानमंत्री चरण सिंह जी उनके घर गए तो छोटे दरवाजे से चैधरी जी सिर में चोट लग गई। उन्होंने कहाॅ- ”कर्पूरी, इसको जरा ऊंचा करवाओं जवाब आया- ”जब तक बिहार के गरीबों का घर नही बन जाता मेरा घर बन जाने से क्या होगा? जननायक की पासबुक में अंतिम इंट्री 1987 के अगस्त माह की थी कुल जमा धनराशि पांच सौ रुपये से भी कम थी। अंतिम दिनों तक भी उनके नाम पर “न तो कोई मकान था और न ही एक इंच जमीन थी।” 17 फरवरी 1928 को अचानक तबीयत बिगड़ने से उनका देहान्त हो गया। आज उन्हे एक जाति विशेष के दायरे में महदूद करके देखा जाता है। जबकि उन्होने दलित, पिछड़े, शोषितो, वंचितो, गरीबो की तीमारदारी को अपने जीवन का मिशन बनाया। उन्हे न केवल राजनैतिक बल्कि सामाजिक, शैक्षिणिक व सांस्कृतिक चेतना प्रसार की भी बडी चिन्ता थी। वे समस्त मानवता की हित चिन्ता करने वाले भारतीय सामाज के अनमोल प्रहरी थे।

डॉ हरविंदर कुमार

डॉ हरविंदर कुमार

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