Biography of Kanshiram – मान्यवर कांशीराम

0
285
मान्यवर कांशीराम
मान्यवर कांशीराम

मान्यवर कांशीराम

मान्यवर कांशीराम

पंजाब के रोपड़ जनपद में खवासपुर गांव के एक रामदासिया चमार परिवार में पैदा हुए ‘‘कांशीराम‘‘ का जन्म 15 मार्च, 1934 को हुआ। उनकी शुरुआती शिक्षा शासकीय प्राथमिक-शाला मिलकपुर, पंजाब से शुरू हुई। ये वो समय था जब दलित प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को अध्यापकों व अन्य विद्यार्थियों से जातिगत भेदभाव की यातनाएं झेलनी पड़ती थीं। विभिन्न मुसीबतों का निडरता से सामना करते हुए उन्होंने 1956 में रोपड़ के सरकारी कॉलेज से विज्ञान में स्नातक की डिग्री हासिल की।
एक घटना का वर्णन करते समय स्वयं कांशीराम की आंखें भर आई थीं जब उन्होंने बताया कि स्कूल की शिक्षा के दौरान एक दिन मेरी मां ने मुझसे, मेरे पिता को खाना पहुंचाने के लिए कहा। मेरे पिता जी रोपड़ करनाल गेस्ट हाउस में बेगार का काम किया करते थे, जब मैं खाने का डब्बा लेकर गेस्ट हाउस पहुंचा तब मैंने देखा कि मेरे पिता हाथ से खींचे जाने वाले पंखे की रस्सी को लगातार खींचते हुए पसीने से लथपथ हैं। वह हवा इसलिए कर रहे हैं की उनके अफसर को ठंडी हवा मिलती रहे यदि अफसर की नींद खुल गई तो वह उन्हें सजा देगा। यह सब कार्य करने के बाद भी उन्हें बहुत कम पैसे मिलते थे। ऐसी तमाम घटनाएं थी जिससे कांशीराम काफी आहत थे। युवावस्था में अन्य युवाओं की तरह कांशीराम भी अपने भविष्य के लिए हजारों सपने देखा करते थे, लेकिन सदैव उनमें अपने सपने पूरे करने की धुन सवार रहती थी। यही कारण था कि कुश्ती और तैराकी में उन्हें महारत हंासिल थी। वह हर प्रकार की किताबें पढ़ने के साथ-साथ फिल्मी पत्रिकाएं भी बड़े ध्यान से पढ़ते थे। कहीं ना कहीं उन्हें फिल्मों में नायक बनने की अभिलाषा थी पर शायद उन्हें भी ये मालूम ना था कि ‘‘नायक‘‘ बनने की चाह रखने वाले एक दिन बहुजन समाज के ‘‘महानायक‘‘ बनेंगे। उन्होंने पुणे की एक ऑर्डनेंस फैक्ट्री में नौकरी की शुरुआत की लेकिन वक्त का पहिया कहां रुकने वाला था यहां उनकी मुलाकात दीनाभाना के साथ हुई जो कि उन्हीं के कार्यालय में चतुर्थ वर्ग के कर्मचारी थे। दीनाभाना ऑर्डिनेंस फैक्ट्री के आला अधिकारियों से ‘‘14 अप्रैल‘‘ यानी अंबेडकर जयंती मनाने के लिए छुट्टी मांग रहे थे। अंबेडकर जयंती की छुट्टी ना दिए जाने के खिलाफ दीनाभाना नें आवाज उठाई जिसके लिए कंपनी के अधिकारियों ने उन्हें निलंबित कर दिया।

दीनाभाना दलित समाज से आते थे इसलिए कांशीराम भी उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगे, लेकिन कांशीराम तब तक डॉक्टर अंबेडकर और उनके मिशन को अच्छी तरह नहीं जानते थे। एक बार दीनाभाना ने कांशीराम को डी के खापर्ड़े से मिलवाया। इस बात को लेकर खापर्ड़े बड़े अचंभित थे कि कांशीराम डॉक्टर अंबेडकर के बारे में नहीं जानते तब उन्होंने बताया कि आपको और हम सभी को यह नौकरी उनकी बदौलत मिली है, डॉ अंबेडकर ना होते तो उन्हें यह नौकरी नहीं मिली होती। खापर्ड़े ने कांशीराम को बाबासाहेब डॉक्टर अंबेडकर द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट‘‘ उपहार स्वरूप पढ़ने के लिए दी। कांशीराम रात को जैसे-जैसे वो किताब पढ़ते जा रहे थे। उन्हें वह सब जातिगत भेदभाव याद आते जा रहे थे जो उन्होंने व उनके परिवार ने झेला था।
पूरी रात किताब पढ़ने के बाद अगले दिन का सूरज कांशीराम जी के जीवन में नई सुबह लेकर आया यहीं से कांशीराम का जीवन और उद्देश्य पूरी तरह परिवर्तित हो गया। दीनाभाना के साथ अन्याय करने वाले अधिकारी कुलकर्णी पर कांशीराम जी को इतना गुस्सा आया की उन्होने उसे थप्पड़ मार दिया और अपनी नौकरी से इस्तीफा देकर आर पी आई की सदस्यता ले ली। इस घटना के बाद कांशीराम ने बाबासाहेब के आंदोलन का गहन अध्ययन किया और दीनाभाना, डी के खापर्ड़े और अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर भारत में बहुजन आंदोलन का बिगुल बजा दिया। ये वो समय था जब बाबासाहेब के महापरिनिर्वाण के बाद उनका कारवां पूरी तरह थम गया था। आर पी आई में कुछ समय सक्रिय रहने के बाद उन्हें लगने लगा कि ये अनेक धड़ों में बटी हुई है और अपने मूल लक्ष्य से भटक गई थी। आर पी आई से अलग होने के बाद उन्होंने 1971 में अखिल भारतीय एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक कर्मचारी संघ की स्थापना की जो कि बाद में चलकर 1978 में बामसेफ बन गया। बामसेफ एक ऐसा संगठन था जिसका उद्देश्य अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य वर्गों और अल्पसंख्यकों के शिक्षित सदस्यों को अम्बेडकरवादी सिद्धांतों का समर्थन करने के लिए राजी करना था। बामसेफ न तो एक राजनीतिक और न ही एक धार्मिक संस्था थी और इसका अपने उद्देश्य के लिए आंदोलन करने का भी कोई उद्देश्य नहीं था। इसके बाद कांशीराम साहब ने 1981 में एक और सामाजिक संगठन बनाया, जिसे दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएसएसएस) के नाम से जाना जाता है। उन्होंने दलित वोट को इकठ्ठा करने की अपनी कोशिश शुरू की और 1984 में उन्होंने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना की। उन्होंने अपना पहला चुनाव 1984 में छत्तीसगढ़ की जांजगीर-चांपा सीट से लड़ा था, बीएसपी को उत्तर प्रदेश में सफलता मिली, शुरू में दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों के बीच विभाजन को पाटने के लिए संघर्ष किया, लेकिन बाद में मायावती के नेतृत्व में इस खाई को पाटा गया।
सन 1982 में उन्होंने अपनी पुस्तक ‘‘चमचा युग‘‘ लिखी, जिसमें उन्होंने जगजीवन राम और रामविलास पासवान और रामदास अठावले जैसे दलित नेताओं का वर्णन करने के लिए ‘‘चमचा‘‘ शब्द का इस्तेमाल किया था। उन्होंने तर्क दिया कि दलितों को अन्य दलों के साथ काम करके अपनी विचारधारा से समझौता करने के बजाय अपने स्वयं समाज के विकास को बढ़ावा देने के लिए राजनीतिक रूप से काम करना चाहिए। बीएसपी के गठन के बाद, कांशीराम ने कहा कि उनकी ‘बहुजन समाज पार्टी‘ पहला चुनाव हारने के लिए, दूसरा चुनाव नजर में आने के लिए और तीसरा चुनाव जीतने के लिए लड़ेगी, 1988 में उन्होंने भावी प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह के खिलाफ इलाहाबाद सीट से चुनाव लड़ा और प्रभावशाली प्रदर्शन किया, लेकिन 70,000 वोटों से हार गए।

वह 1989 में पूर्वी दिल्ली (लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र) से लोक सभा चुनाव लडे और चैथे स्थान पर रहे। सन 1991 में, कांशीराम और मुलायम सिंह ने गठबंधन किया और कांशीराम ने इटावा से चुनाव लड़ने का फैसला किया, कांशीराम ने अपने निकटतम भाजपा प्रतिद्वंद्वी को 20,000 मतों से हराया और पहली बार लोकसभा में प्रवेश किया।
इसके बाद कांशीराम ने 1996 में होशियारपुर से 11वीं लोकसभा का चुनाव जीता और दूसरी बार लोकसभा पहुंचे। अपने खराब स्वास्थ्य के कारण उन्होंने 2001 में सार्वजनिक रूप से मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। सन 2002 में, कांशीराम जी ने 14 अक्टूबर 2006 को डॉक्टर अम्बेडकर के धर्म परिवर्तन की 50 वीं वर्षगांठ के मौके पर बौद्ध धर्म ग्रहण करने की अपनी मंशा की घोषणा की थी। कांशीराम जी की मंशा थी कि उनके साथ उनके 5 करोड़ समर्थक भी इसी समय धर्म परिवर्तन करें। उनकी धर्म परिवर्तन की इस योजना का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यह था कि उनके समर्थकों मे केवल अछूत ही शामिल नहीं थे बल्कि विभिन्न जातियों के लोग भी शामिल थे, जो भारत में बौद्ध धर्म के समर्थन को व्यापक रूप से बढ़ा सकते थे। हालांकि, 9 अक्टूबर 2006 को उनका निधन हो गया और उनकी बौद्ध धर्म ग्रहण करने की मंशा अधूरी रह गयी। जाते जाते कांशीराम बहुजनों के इतने लोकप्रिय हो गए कि ना जाने कब वे ‘‘कांशीराम‘‘ से ‘‘मान्यवर कांशीराम साहब‘‘ हो गए। दुनिया के पहले सर्वोच्च मानव जिनके पास किसी भी तरह की कोई गाड़ी नहीं, कहीं पर कोई मकान नहीं और किसी भी डाकघर या बैंक में कोई खाता नहीं । कांशीराम साहब के बारे में उनके उच्च विचार बहुत ही प्रचलित हैं-
टूटी खटिया, सूखी रोटी
बहुजनों के लिए न्योछावर कर दी बोटी-बोटी
जीवन अपना कर दिया मिशन के नाम
धन्य है हमारे कांशीराम।

भारत में अम्बेडकरवाद अगर जिन्दा है तो इसका पूरा श्रेय सिर्फ मान्यवर कांशीराम साहब को ही जाता है उन्होंने डॉक्टर आंबेडकर के महापरिनिर्वाण के बाद जो आंदोलन की आग बुझ गई थी। बहुजनों की उसी चिंगारी को मान्यवर कांशीराम साहब ने एक मशाल का रूप दिया आज वही मशाल एक ज्वालामुखी का रूप ले चुकी है।

के एस सुमन

 के एस सुमन

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here