ललई सिंह यादव
ललई सिंह यादव अन्याय के सख्त विरोधी थे जिन्होंने शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की और जरूरतमंदों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हुए। उनकी लड़ाई को अपनी लड़ाई समझकर उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। वह कानपुर के एक गांव में कटारा रेलवे स्टेशन झींझक के रहने वाले थे। उनके पिता का नाम गज्जू सिंह यादव और माता का नाम मूला देवी था। ललई सिंह यादव का जन्म 1 सितंबर 1911 ई को हुआ था। उन्होंने सन् 1926 में हिंदी व 1928 में उर्दू भाषा से मिडिल तक पढ़ाई करने के बाद 1929 में वह वन विभाग में गार्ड की नौकरी करने लगे। लेकिन उनके अंदर बचपन से ही एक बात थी कि वह कभी भी किसी गलत बात को बर्दाश्त नहीं करते थे। उसका तत्काल विरोध भी करते थे और यही उनकी पहचान का कारण भी बनने लगा था। ललई सिंह यादव को लोग उनके नाम से जानने लगे थे वह किसी के भी ऊपर होने वाले अत्याचार पर तुरंत उसके समर्थन में खड़े होते थे, और यही कारण था कि उन्हे नौकरी से निलंबित भी होना पड़ा।
उसके बाद उनकी पुलिस में नौकरी लग गई। लेकिन ललई सिंह यादव को अच्छी नौकरी के बावजूद भी गलत को गलत और सही को सही बोलने का अंदाज नहीं गया। वे किसी के ऊपर भी कोई गलत कार्य होता देखते तो वे आग बबूला तक हो जाते थे। जिसकी वजह से उन्हें वहां से भी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने सामाजिक व धार्मिक असमानता को लेकर एक जंग शुरू कर दी क्योंकि उन्होंने अपने व्यवसाय के दौरान जो भी खामियां देखी थीं उसी दिन से उन्होंने मन बना लिया था कि अब मे किसी के ऊपर भी अत्याचार नहीं होने दूंगे। आर.पी.आई के नेता कन्नौजी लाल ने भी उन्हें पार्टी में आने का निमंत्रण दिया तो उन्होंने पार्टी की सदस्यता ले ली थी। इस दौरान उनका झुकाव बौद्ध धर्म की ओर भी होने लगा था क्योंकि वह बुद्धिज्म को पढ़ते-पढ़ते बौद्ध धर्म के बहुत नजदीक तक चले गए थे। क्योंकि उनका मानना था कि जिस गुरु से बाबा साहेब डॉक्टर बी आर अंबेडकर ने शिक्षा ली हैंै उसी गुरु से वह भी शिक्षा लेंगे।
बाद में उन्होंने 21 जुलाई 1967 को कुशीनगर जाकर भदंत चंद्रमणि महास्थिविर जी से शिक्षा लेकर बौद्ध धर्म ग्रहण करने के उपरांत उन्होंने पार्टी को भी छोड़ दिया। उन्होंने बुद्धिज्म को आगे बढ़ाने और मनुवाद को नेस्त नाबूत करने के लिए उन्होंने पेरियार में दक्षिणी भारत में आवाज बुलंद कर रखी थीं।
उनके द्वारा लिखित ‘‘द रामायण 12 रीडिंग‘‘ की बहुत चर्चा रही। उसका एक बहुत बड़ा कारण था कि वह रामास्वामी पेरियार के संपर्क में भी थे लेकिन रामास्वामी को हिंदी बहुत अच्छी नहीं आती थीं। इसीलिए जो किताब उन्होंने लिखी तो उन्होंने अपनी रामायण का हिंदी अनुवाद करने की इच्छा जताई यह सुनकर ललई सिंह यादव को बहुत अच्छा लगा। उन्होंने भी इसकी सहमति तुरंत ही दे दी और उन्होंने इस सच्ची रामायण नाम से हिंदी संस्करण निकाल दिया। इस रामायण के छपते ही हिंदू समुदाय खासकर ब्राह्मणों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की तो प्रदेश की सरकार ने इस रामायण पर प्रतिबंध लगाते हुए किताब की प्रतियां जब्त करा ली। जब मामला अदालत तक पहुंचा तो वहां ललई सिंह यादव की जीत हुई। उन्होंने सच्ची रामायण को प्रतिबंध मुक्त कर दिया। इस रामायण में तथाकथित भगवान राम को लेकर आपत्तिजनक बातें कही गई थीं। उन्हें शूद्रों का द्रोही करार देते हुए दक्षिणी भारतीयों का दुश्मन बताया गया। उन्हे शोषित वंचित समाज की बुद्धिज्म को बढ़ावा देना ज्यादा अच्छा लगा उन्होंने शोषित पर धार्मिक डकैती 100 सीटों पर राजनीतिक डकैती, अंगुलीमार नाटक, सन माया बलिदान नाटक, शंबूक दवध नाटक, एकलव्य नाटक, नागिन नाटक व सामाजिक विषमता कैसे खत्म हो, जैसी शिकारी किताबों की रचना की।
यह बात मनुवादियों के गले नहीं उतर रही थीं कि उनके प्रभु श्री राम को इस कदर उन्होंने धो डाला था कि लोग अब उन से परहेज करने लगे थे। वह लोग समझने लगे थे खास करके ओबीसी समाज ललई सिंह यादव के कामों से बहुत प्रभावित होकर वह उनके साथ में आने लगें 24 दिसंबर 1983 को पेरियार का निधन होने से ललई सिंह यादव को बहुत धक्का लगा, वह पूरी तरह पेरियार पर कार्य को आगे बढ़ाने की ओट में लग गए।
वह उत्तरी भारत के पेरियार भी कहलाने लगे क्योंकि उनकी बातें लोगों को अब समझ में आने लगी थीं कि उनको किस तरीके से पाखंडवाद और आडंबरवाद में फसाया जाता है। इस कलई को खोलने का काम ललई सिंह यादव ने किया उन्होंने बौद्ध धर्म को नगद का धर्म बताकर काफी चर्चित किया। वे तर्क देते हुए कहते थे कि विश्व के सभी देशों के कानून बौद्ध धर्म पर आधारित हैं इसलिए सच्चा धर्म बौद्ध धर्म ही हैं। वे कहते थे कि हिंदू धर्म में कहा जाता हैं कि आज अच्छे कार्य करो तो अगले जन्म में बेहतर परिणाम मिलेंगे और बौद्ध धर्म में अच्छे काम करो और तत्काल अच्छे परिणाम भी लो उनकी भाषा में इस हाथ दे और उस हाथ लो।
उन्होंने अपनी समस्त धन-संपत्ति कानपुर के एक अशोका पुस्तकालय को दान में दी सामाजिक परिवर्तन के इस योद्धा का परिनिर्वाण 7 फरवरी 1993 को हो गया लेकिन उनका कार्य और उनकी कार्य शैली आज भी इतिहास के पन्नों पर नजर आती हैं, लेकिन सरकारों ने इन इतिहास के पन्नों को दबाने का प्रयास किया पर ललई सिंह यादव के कार्य आज भी सर चढ़कर बोलते हैं। उनको छुपाया नहीं जा सकता ललई सिंह यादव एक ऐसे योद्धा का नाम हैं जिसने शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद की और उपेक्षितओं को उनका हक दिलाने के लिए जीवन समर्पित कर दिया।
सिकंदर यादव